(नई दिल्ली)- ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत में मनोसामाजिक अथवा बौद्धिक अक्षमताओं से जूझ रही महिलाओं और लड़कियों को जबरन मानसिक अस्पतालों और संस्थाओं में भर्ती करा दिया जाता है जहाँ उन्हें अस्वास्थ्यकर हालात का सामना करना पड़ता है, उन्हें शारीरिक एवं यौन हिंसा का जोखिम होता है, और बिजली के झटके देने सहित उनकी इच्छा के विरुद्ध उपचार किया जाता है। जैसा कि एक महिला ने बताया, उनके साथ “जानवरों से भी बुरा व्यवहार किया जाता है”।
आज प्रकाशित की गई एक नई रिपोर्ट में, ह्यूमन राइट्स वॉच को पता चला कि सरकारी संस्थाओं और मानसिक अस्पतालों में जबरन भर्ती कराई गई महिलाओं के साथ घोर दुर्व्यवाहर किया जाता है। ह्यूमन राइट्स वॉच ने सरकार से मांग की वे उन महिलाओं को जबरन संस्थागत देखरेख में रखने के बजाय उन्हें अक्षम लोगों के लिए काम करने वाली स्वैच्छिक समुदाय-आधारित सेवाओं एवं सहायता के सुपुर्द करें।
ह्यूमन राइट्स वॉच में अनुसंधानकर्ता कृति शर्मा ने कहा “अक्षमताओं से जूझ रही महिलाओं और लड़कियों को उनके परिवार वाले या पुलिस संस्थाओं में झोंक देते हैं क्योंकि कुछ हद तक सरकार उन्हें पर्याप्त सहायता एवं सेवाएँ उपलब्ध कराने में विफल रही है।” उन्होंने कहा, “और एक बार जब उन्हें वहाँ बंद कर दिया जाता है तो उनका जीवन प्रायः अकेलेपन, भय और दुर्व्यवहार का शिकार हो जाता है जिसमें छुटकारे की कोई आशा नहीं बचती है।”
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को तत्काल मनोसामाजिक अथवा बौद्धिक अक्षमताओं वाली महिलाओं और लड़कियों के लिए बनी सभी आवासीय सुविधाओं-निजी एवं सरकार द्वारा संचालित-के निरीक्षण एवं नियमित निगरानी का आदेश देना चाहिए। भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए भी कदम उठाने चाहिएं कि मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं वाले लोगों को अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने का अधिकार हो और उनकी सूचित स्वीकृति के बाद ही उनका उपचार किया जाए।
106 पृष्ठों की रिपोर्ट, “‘जानवरों से भी बदतर सुलूक’: भारत की संस्थाओं में मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार,” में भारत भर में मानसिक अस्पतालों और आवासीय संस्थाओं में इच्छा के विरुद्ध भर्ती किए जाने और मनमाने ढंग से बंद रखने का विवरण दिया गया है जहां पर मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं वाली महिलाओं को जरूरत से ज्यादा भीड़ और स्वच्छता का अभाव, सामान्य स्वास्थ्य सेवा तक अपर्याप्त पहुँच, बिजली के झटके देने सहित जबरन उपचार तथा शारीरिक, मौखिक एवं यौन हिंसा झेलनी पड़ती है। एक मामले में, मनोसामाजिक तथा बौद्धिक दोनों प्रकार की अक्षमताओं से जूझ रही एक महिला का कोलकाता के एक मानसिक अस्पताल में एक पुरुष कर्मचारी ने यौन उत्पीड़न किया। रिपोर्ट में उन अनेक बाधाओं का भी उल्लेख है जो मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं वाली महिलाओं और लड़कियों को दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करने और न्याय पाने से रोकती हैं।
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को तत्काल कानून में सुधार का काम करना चाहिए जिसमें इस समय संसद में लंबित वे दो विधेयक भी शामिल हैं जो बौद्धिक या मनोसामाजिक अक्षमताओं वाली महिलाओं और लड़कियों के प्रति दुर्व्यवहार को रोकने और उनके अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने से संबद्ध हैं।
रिपोर्ट में भारत के छह नगरों में अक्षमताओं से जूझ रही महिलाओं और लड़कियों की स्थिति का विश्लेषण किया गया है। यह शोध नई दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, पुणे, बंगलुरु और मैसूर में दिसंबर, 2012 से नवंबर, 2014 तक किया गया और यह मनोसामाजिक एवं बौद्धिक अक्षमताओं वाली महिलाओं और लड़कियों, उनके परिवारों, देखभाल करने वालों, मनोरोग स्वास्थ्य विशेषज्ञों, सेवाप्रदाताओं, सरकारी अधिकारियों और पुलिस कर्मचारियों से 200 से अधिक साक्षात्कारों पर आधारित है। ह्यूमन राइट्स वॉच ने 24 मानसिक अस्पतालों, या मनोचिकित्सा बिस्तरों, पुनर्वास केंद्रों और आवासीय देखभाल सुविधाओं से युक्त सामान्य अस्पताल का दौरा किया।
भारत में मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं के प्रचलन के कोई आधिकारिक सरकारी रिकॉर्ड या अनुमान उपलब्ध नहीं हैं। 2011 की जनगणना में अनुमान लगाया गया है कि भारत की केवल 2.21 प्रतिशत आबादी अक्षमता का शिकार है - जिसमें 1.5 मिलियन लोग (जनसंख्या का 0.1 प्रतिशत) बौद्धिक अक्षमता से जूझ रहे हैं और मात्र 722,826 लोग (जनसंख्या का 0.05 प्रतिशत) मनोसामाजिक अक्षमता (जैसे स्किजोफर्निया या द्विध्रुवी विकार) का शिकार हैं। ये आंकड़ें संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतराष्ट्रीय अनुमानों से आश्चर्यजनक रूप से कम हैं जिनमें अनुमान लगाया गया है कि विश्व की 15 प्रतिशत आबादी किसी-न-किसी अक्षमता का शिकार है। भारतीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का दावा है कि भारत में मनोसामाजिक अक्षमता का शिकार लोगों का प्रतिशत कहीं अधिक है और 6-7 प्रतिशत लोग (74.2 - 86.5 मिलियन) “मानसिक विकार” तथा 1-2 प्रतिशत (12.4 - 24.7 मिलियन) “गंभीर मानसिक विकार” से जूझ रहे हैं।
भारत सरकार ने समुदाय-आधारित सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम आरंभ किया लेकिन उसकी पहुँच सीमित है और निगरानी प्रणाली के अभाव में उसका कार्यान्वयन खामियों से भरा है। जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम भारत के कुल 650 जिलों में से केवल 123 में मौजूद है और अनेक सीमाओं से जूझ रहा है जिनमें अभिगम्यता तथा जनशक्ति, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के साथ एकीकरण की कमी और मानकीकृत प्रशिक्षण का अभाव शामिल है।
एक ऐसे देश में जहाँ लिंग आधारित भेदभाव व्यापक तौर पर व्याप्त है, मनोसामाजिक अथवा बौद्धिक अक्षमताओं की शिकार महिलाओं और लड़कियों को विशेष तौर पर - अपनी अक्षमता और लिंग के आधार पर - भेदभाव के अनेक रूपों का सामना करना पड़ता है - और इसलिए सबसे अधिक हाशिए पर हैं और दुर्व्यवहार तथा हिंसा का दंश झेल रही हैं। कई बार उनकी देखभाल करने में असमर्थ परिवारों से परित्यक्त इन महिलाओं और लड़कियों में से अनेक जबरन संस्थाओं में भर्ती करा दी जाती हैं। भारत में महिलाओं और पुरुषों को संस्थाओं में भेजने की प्रक्रिया एक समान है। लेकिन अक्षमताओं से जूझ रही महिलाओं और लड़कियों को अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है-जिनमें यौन हिंसा और प्रजनन संबधी स्वास्थ्य तक पहुँच न होना शामिल हैं - जो पुरुषों के साथ नहीं है।
कृति शर्मा ने कहा, “पर्याप्त सामुदायिक समर्थन के बिना और जागरूकता की कमी के कारण, भारत में मनोसामाजिक अक्षमताओं के शिकार लोगों का मजाक उड़ाया जाता है, उन्हें डराया जाता है और उन्हें कलंकित कर दिया जाता है।”
परिवार, कानूनी अभिभावक और बाल कल्याण समितियाँ मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं वाली महिलाओं और लड़कियों को उनकी मर्जी जाने बिना भर्ती करा सकते हैं। यदि वे सड़क पर घूमती मिलें तो पुलिस भी उन्हें पकड़ सकती है और न्यायालय के आदेश पर इन्हें संस्थाओं में भर्ती करा सकती है। यदि उनके परिवार का कोई सदस्य उन्हें लेने नहीं आता तो प्रायः वे दशकों तक वहीं रहती हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच ने वर्तमान में या पहले इन संस्थाओं में रही जितनी महिलाओं और लड़कियों का साक्षात्कार किया उनमें से किसी को भी उसकी स्वीकृति से भर्ती नहीं किया गया था। ह्यूमन राइट्स वॉच ने संस्थाओं में दुर्व्यवहार के जिन 128 मामलों का उल्लेख किया है उनमें कोई भी महिला या लड़की अपनी मर्जी के विरुद्ध संस्था में रहने या वहाँ दुर्व्यवहार का शिकार होने पर उसके सुधार की प्रक्रिया तक सफलतापूर्वक नहीं पहुँच पाई। जिन महिलाओं और लड़कियों से साक्षात्कार किया गया उनमें से अधिकतर सुधार की प्रक्रिया से अवगत ही नहीं थीं।
शर्मा ने कहा, “अक्षमताओं से जूझ रही महिलाओं और लड़कियों को लम्बे समय तक बंद रखना कोई समाधान नहीं है। बहुत गंभीर मामलों में भी यह जानने के तरीके हैं कि वे क्या चाहती हैं।”
ह्यूमन राइट्स वॉच ने जिन कुछेक सुविधाओं का दौरा किया उनमें अत्याधिक भीड़भाड़ और स्वच्छता का अभाव चिंता के गंभीर विषय थे। उदाहरण के तौर पर नवंबर, 2014 की स्थिति के अुनसार दिल्ली में बौद्धिक विकारों से जूझ रहे लगभग 900 लोग एक सरकारी संस्था आशा किरण में रह रहे थे- तो अस्पताल की क्षमता से लगभग तीन गुना अधिक है। पुणे मानसिक अस्पताल अधीक्षक डॉक्टर विलास भैलूमे ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, “हमारे यहाँ 1,850 से अधिक रोगियों के लिए मात्र 100 शौचालय हैं-जिनमें से केवल 25 काम कर रहे हैं, अन्य अवरुद्ध रहते हैं। अतः खुले में मलत्याग करना एक आम बात है।”
ह्यूमन राइट्स वॉच ने चार मानसिक अस्पतालों में 20 महिलाओं और 11 लड़कियों के मामले दर्ज किए हैं जिन्हें इस समय या हाल ही में बिना उनकी स्वीकृति के इलेक्ट्रोकन्क्लूसिव थेरेपी (ईसीटी/बिजली के झटके) दी गई थी। मनोसामाजिक अक्षमता की शिकार 45 वर्षीया महिला विमला (असली नाम नहीं) को उसके पति ने संस्था में भर्ती कराया और उसे महीनों तक ईसीटी दिया गया। उसने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, “ईसीटी ऐसा था जैसे मौत की सुरंग।” उन्होंने कहा, “कई दिनों तक मेरे सिर में दर्द रहता था। जब मेरी दवाई कम की गई तो मैंने सवाल पूछने शुरू किए। उसके पहले तो मैं एकदम निढाल थी। कई महीने बाद ही मुझे पता चला कि मुझे ईसीटी दी जा रही थी।”
भारत ने अक्षमताओं वाले लोगों के अधिकारों से संबद्ध संधि (सीआरपीडी) पर 2007 में हस्ताक्षर किए। इस संधि के अंतर्गत सरकार को अक्षमताओं वाले लोगों के कानूनी क्षमता के अधिकारों और उनके अन्य लोगों से बराबरी के आधार पर समुदाय में रहने के अधिकार का सम्मान और सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए। संधि में जबरन संस्थागत करने पर प्रतिबंध है। फिर भी भारत का कानून न्यायालयों को यह अनुमति देता है कि वे मनोसामाजिक या बौद्धिक अक्षमताओं के शिकार लोगों की स्वतंत्र एवं सूचित सहमति के बिना अभिभावकों को उनकी ओर से निर्णय लेने के लिए नियुक्त कर सकते हैं। और भारत एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा अमल में लाता है जहाँ संस्थाओं में अक्षमता से ग्रस्त लोगों को अलग-थलग रखा जाता है बजाय इसके कि उनकी समुदाय के समर्थन और सेवाओं तक पहुँच हो।
राष्ट्रीय कानून को सीआरपीडी के अनुरूप बनाने के लिए, 2013 में, सरकार संसद में दो विधेयक लाई, मानसिक स्वास्थ्य विधेयक तथा अक्षमता से ग्रस्त लोगों के अधिकारों से संबद्ध विधेयक। हालाँकि, वे मनोसामाजिक एवं बौद्धिक अक्षमता की शिकार महिलाओं और लड़कियों का कानूनी क्षमता तथा स्वतंत्र तौर पर जीने के अधिकार को सुनिश्चित नहीं करता, जबकि संधि में इसे आवश्यक माना गया है।
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत में केंद्र सरकार को तुरंत एक मूल्यांकन का आदेश देना चाहिए और मानसिक अस्पतालों और गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित आवासीय देखभाल संस्थाओं में उनकी प्रभावी निगरानी सुनिश्चित कर वहाँ दुर्व्यवहार और अमानवीय स्थिति का अंत करना चाहिए। भारत को अविलंब एक व्यापक कानूनी सुधार की प्रक्रिया लागू करनी चाहिए जिससे अभिभावक की भूमिका समाप्त की जा सके और अक्षमताओं से जूझ रहे सभी लोगों को अन्य लोगों के साथ बराबरी का हक पाने के लिए उनकी कानूनी क्षमता को मान्यता दी जाए। साथ ही, दीर्घकालीन आवासीय देखभाल का विकल्प तलाश करने के लिए एक विस्तृत, समयबद्ध योजना विकसित की जाए। भारत में कुछ स्थानीय समुदाय सहायता वाले तथा स्वतंत्र तौर पर रहने योग्य केंद्र मौजूद हैं और वे गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित हैं, जैसे अंजलि: मेंटल हेल्थ राइट्स आर्गेनाइजेशन (कोलकाता), दी बैन्यान (चेन्नई), बापू ट्रस्ट फॉर रिसर्च ऑन माइंड एंड डिस्कोर्स (पुणे) और ईश्वर संकल्प (कोलकाता)।
“भारत के सामने यह अवसर है कि वह अलग-थलग होने और उत्पीड़न की व्यवस्था से हट कर उसके बजाय एक सहयोग और स्वतंत्रता का माहौल विकसित करे,” कृति शर्मा ने कहा। “मनोसामाजिक तथा बौद्धिक अक्षमताओं से जूझ रही लाखों महिलाओं का जीवन दाँव पर लगा है।”